Tuesday, January 13, 2009

नीले सागर के तट पर खड़ी सुप्रिया समझ नहीं पा रही थी कि वह यहाँ क्यों खड़ी थी। लहरें बारी-बारी उसके पैरों को छूकर वापस चली जाती थीं। अचानक एक तेज लहर आई और ढेर सारी बूँदें छिटके हुए पारे की तरह तट के रेत पर फैल गईं। व रेत पर आकर भी सूखी नहीं थीं, बल्कि सात रंगों की आभा लिए झिलमिल कर रही थीं। उसने उन्हें छूने को हाथ बढ़ाया, तभी किसी ने उसका हाथ थाम लिया।

उसने पलटकर देखा और उसके चेहरे का रंग सिंदूरी हो गया। वही था एकदम सीधी नजर से उसे देखता हुआ। उन आँखों में गहरा प्यार था और चेहरे पर उतनी ही गहरी आत्मीयता। यह साँवला-सलोना चेहरा और उसकी जादुई मुस्कान हमेशा ही उसे इसी तरह बाँध लेती थी। उसे अपने चेहरे पर उसकी साँसों की तपिश का अहसास हुआ और तड़पकर उसने आँखें खोल दीं। उसका चेहरा पसीने से तरबतर था। खिड़की के परदे हवा से काँप रहे थे और बाहर भोर के हलके उजास में उड़ते परिंदों की खुशनुमा आवाजें थीं।

यह कैसा सपना था वह आज तक नहीं समझ पाई थी। इसी तरह वह कहीं न कहीं उसे मिल ही जाता था। किसी मंदिर में, समंदर के किनारे या फिर किसी खूबसूरत-सी वादी में। सुप्रिया उस चेहरे, उसकी हँसी और उसके माथे की एक-एक लकीर से परिचित थी। उसके हाथों की छुअन और उसके जादुई आवाज के वह इतनी करीब थी कि वह अगर धुँधलके में भी दिखता था तो वह पहचान जाती थी। पर एक बात वह कभी नहीं समझ पाई कि उसके हर सपने की कड़ी दूसरे सपने से कैसे जुड़ जाती थी।

कैप्टन विक्रम आनंद जब घाघरा नदी के किनारे बसे उस छोटे-से गाँव तक पहुँचा तो यह देखकर हैरान हो गया कि उसके वहाँ पहुँचने से पहले ही उसके मित्र अविनाश ने पूरा इंतजाम कर रखा था। रेस्ट हाउस में अटैची रख वह बाहर निकल आया। अब उसके सामने दूर तक फैला नदी का विस्तार था और पानी की सतह को छूते हलके कपासी बादलों के पहाड़। सूरज की रोशनी नदी की लहरों पर झिलमिला रही थी। इस बेहतरीन खूबसूरती से मंत्रमुग्ध होकर रह गया विक्रम। उसे संतोष-सा था कि जिस एकांत की तलाश में वह यहाँ तक आया था, उससे भी खूबसूरत एकांत उसे हासिल हो गया था।

हवा में हलकी खुनकी थी और नदी के प्रवाह का शोर धीमा। पूर्व की तरफ से दो छोटी-छोटी पालदार नावें चली आ रही थीं। कितनी देर तक वह यों ही खोया-सा देखता रहा। अचानक ही उस सन्नाटे में घोड़े की टापों की आवाज गूँजी। वह चौंक गया। उसने पलटकर देखा, नदी जहाँ से यू टर्न लेती थी, उसी के साथ गुजरती पतली-सी सड़क पर एक घुड़सवार लड़की आ रही थी। घोड़े की अलमस्त चाल से उसके कंधों तक के बाल हवा में लहरा रहे थे। डूबते सूरज की लाली उसके चेहरे को रोशन किए थी।

विक्रम एकबारगी हतप्रभ रह गया। वह उसके सामने क्षण भर के लिए रुकी। एक उड़ती हुई निगाह उस पर डाली और आगे बढ़ गई। नीली कार्डराय और ऑफ व्हाइट सिल्क की शर्ट में वह बेहद खूबसूरत लग रही थी। विक्रम के होंठों पर हल्की सी हँसी दौड़ गई। यह गाँव उसे किसी बड़े कैनवास की तरह ही लग रहा था, जिसमें छोटी सी छोटी चीज भी अपना अलग महत्व रखती थी और बाकायदा अपने होने का ऐलान करती थी।

अविनाश सुबह ही उसे लेने आ गया था। गाँव के बिल्कुल बीच में उसका बड़ा-सा घर था। सामने सुंदर खुला हुआ लॉन और बाउंड्री वॉल से लगे सफेद के दो पेड़। वे दोनों चाय पी रहे थे, जब वह पूजा की थाली लिए सामने से आती दिखाई दी।

उसने हलका फिरोजी सूट पहन रखा था। माथे पर रोली की बिंदी और थाली में जलते दीपक की रोशनी में चमकती पनीली आँखें।
विक्रम, यह मेरी बहन सुप्रिया है।
अविनाश ने कहा।
पर यह तो नदी किनारे घोड़े पर, वह रुक गया।
अविनाश खिलखिलाकर हँस पड़ा।



ठीक है। कहकर विक्रम खामोश हो गया। उस रात एक बार फिर विक्रम की सोच सुप्रिया की ओर मुड़ गई। एकबारगी उससे पहली मुलाकात भी याद आई। इतने विविध रूपों में जीने वाली सुप्रिया से बेहद निजी सवाल पूछना इतना आसान भी न था।



हमारी सुप्रिया अपनी जिंदगी अपनी पसंद से जीती है और उसकी पसंद मेरी पसंद है, क्योंकि मैं उसे बहुत प्यार करता हूँ।
विक्रम के रेस्ट हाउस के बगल में दूर तक चला गया पलाश का जंगल था। इस समय सारे ही पेड़ सुर्ख फूलों से भर गए थे। लगता था, जैसे सारा जंगल ही शोलों में बदल गया हो। उस रात देर तक वह बरामदे में बैठा लहरों की आवाज सुनता रहा और जब नींद से पलकें भारी होने लगीं तो जाकर गहरी नींद सो गया। अगली सुबह वह और अविनाश फार्म तक टहलने गए। अविनाश का काफी बड़ा फार्म था। उसने युकलिप्टस का जंगल भी लगा रखा था। अकसर वे दोनों साथ-साथ दूर तक टहलने चले जाते थे, फिर धीरे-धीरे सुप्रिया भी उनके साथ शामिल हो गई।

एक शाम जब वे दोनों अकेले थे, अविनाश ने उसे देखते हुए अचानक एक अजीब-सा सवाल किया। विक्रम, मेरी एक मदद करोगे? दरअसल इस जगह मैं सचमुच असहाय-सा हो गया हूँ। बात यह है ‍कि तीन साल पहले ही सुप्रिया अपनी पढ़ाई खत्म कर चुकी है। कायदे से अब उसकी शादी हो जानी चाहिए। माँ-बाबू जी के न रहने से यह जिम्मेदारी मेरी हो जाती है।
तो मुश्किल क्या है? विक्रम ने पूछा।
सुप्रिया शादी से इन्कार करती है।

ऐसा क्यों है, मैं नहीं जानता और सीधे उससे पूछने की मेरी हिम्मत नहीं होती। अगर ह किसी को पसंद करती है, तो भी कहे तो सही। मैं चाहता हूँ, तुम उससे पूछ लो। वह तुमसे खुल भी गई है।
मैं भला क्या पूछूँगा उससे! विक्रम उलझकर रह गया।
मेरे लिए इतना नहीं कर सकते?

ठीक है। कहकर विक्रम खामोश हो गया। उस रात एक बार फिर विक्रम की सोच सुप्रिया की ओर मुड़ गई। एकबारगी उससे पहली मुलाकात भी याद आई। इतने विविध रूपों में जीने वाली सुप्रिया से बेहद निजी सवाल पूछना इतना आसान भी न था।
अविनाश एक हफ्ते के लिए काम से बाहर चला गया। सुप्रिया अकसर इस बीच उसके पास आती रही और वे दोनों साथ-साथ टहलने जाते रहे। वे दोनों ही नदी के किनारे टहलते हुए दूर ‍तक निकल गए और वापसी पर नदी किनारे एक बड़ी-सी चट्‍टान पर बैठ गए। सुप्रिया खामोश थी। वह नदी के दूसरे छोर को देख रही थी। जाने क्यों विक्रम को लगा कि उसकी आँखें भरी हुई हैं। प्रिया, एक बात पूछूँ? - विक्रम ने साहस कर कहा।

कहिए! उसने वैसे ही नजर नीची रखी। अविनाश तुम्हारी शादी को लेकर परेशान है। पर मैंने उनसे कह दिया है कि मैं शादी नहीं करूँगी। उसने स्पष्ट उत्तर दिया।
पूछ सकता हूँ क्यों? क्या किसी को तुम उसने बात अधूरी छोड़ दी।
मैं शायद आपको समझा नहीं पाऊँगी पर।
मुझे अपना दोस्त समझकर कह सकती हो। बात मेरे तक ही रहेगी।
सुप्रिया की आँखें झेंप गईं। उसके चेहरे पर पीड़ा झलक आई।
मैं नहीं जानती कि आप इस बात को किस तरह लेंगे, पर यह उतना ही सच है, जितना कि मेरा खुद का वजूद। काफी साल से कोई मेरे सपनों में आता है। वह मेरे इतने करीब होता है कि उसके माथे की एक-एक लकीर तक मेरी पहचानी हुई है।
वह इतना खामोश-सा रहता है। उसकी आँखें बेहद उदास हमेशा कुछ सोचती हुई-सी और उसके हाथों की छुअन से मैं इतनी परिचित हूँ कि जिस दिन भी वह मुझे दिखाई देगा, मैं उसे पहचान लूँगी।
प्रिया, तुम ठीक तो हो? किस कल्पना में जी रही हो तुम? ये किस्से-कहानियों की बातें हैं। जिंदगी से इनका संबंध नहीं।

मैं जानती थी आप मेरा विश्वास नहीं करेंगे।
यह नासमझी है। इससे बाहर निकलने की कोशिश करो। तुम्हीं सोचो, क्या तुम्हारे इस स्वप्न-पुरुष का अस्तित्व हो सकता है?
शायद। उसने कहा और देर तक चुपचाप लहरों का उठना-गिरना देखती रही। जाने कहाँ से काले बादलों का एक रेला आया और पूरे आकाश पर फैल गया।
वहाँ से न तो विक्रम उठा और न ही सुप्रिया।
विक्रम ने सुप्रिया का हाथ थामा और वापस होने के लिए उठ खड़ा हुआ। रेस्ट हाउस अभी काफी दूर था। तेज बारिश ने जैसे उनका रास्ता ही रोक लिया। वह मौसम की पहली बारिश थी, जो रुकना ही न चाहती थी। बारिश रुकने का इंतजार करते वे एक पेड़ के नीचे चले गए।

अचानक बिजली की तेज कौंध आकाश के एक छोर से दूसरे छोर तक चली गई और अनजाने ही विक्रम की बाँह ने सुप्रिया के कंधों को घेर लिया। कानों को बहरा कर देने वाली कड़क से सुप्रिया का सर्वांग काँप गया। उसने चौंककर विक्रम को देखा और जैसे उसकी आँखों के सामने एक भूला-सा सपना सरक आया।
पानी रुकने पर विक्रम उसे लेकर रेस्ट हाउस तक आया। उसे सिर सुखाने को तौलिया देकर वह खुद कपड़े बदलने चला गया, पर जब वह पलटकर आया, तब तक सुप्रिया जा चुकी थी।

सुप्रिया सन्नाटे में थी... एक ही दिन में जैसे उसकी दुनिया बदल गई थी पर इस पहचान का वह क्या करे। यहाँ तो राह ही बदल गई थी। एक बात बिल्कुल साफ थी कि विक्रम आनंद उसका कभी नहीं हो सकता था।

दूसरी सुबह विक्रम की आँख खुली तो उसे हल्का बुखार था। हल्का बुखार जैसे उसकी आँखों में नशा-सा दे गया था। उसने जागकर भी आँखें न खोलीं। हैरान-सा वह दिमाग पर जोर डालकर कुछ याद करने की कोशिश-सी करता रहा। पता नहीं क्यों, उसे लग रहा था कि रात जब वह गहरी नींद में था तो कोई उसके बालों में अँगुलियाँ फिराता रहा था। किसी का आँचल उसके चेहरे को छूकर चला गया था। एक प्यार-भरा अहसास और वह छुअन उसे अब भी याद थी। उसने दवा ली और फिर गहरी नींद सो गया।

शाम होने तक उसका बुखार नहीं उतरा था। चौकीदार उसे खाना खिलाकर जब चला गया तो देर तक वह चुपचाप खिड़की से बाहर देखता रहा। फिर धीरे-धीरे उसकी आँखें बंद होने लगीं। नदी की लहरें जैसे धीरे-धीरे लोरियों में बदल गईं और वह सो गया। रात काफी गुजर चुकी थी। जब विक्रम की आँख खुली।

उसने देखा, दरवाजा वैसे ही भिड़ा हुआ था। उसने करवट बदलकर धीमी रोशनी भी बुझा दी। अब कमरे में खिड़की से आती चाँद की रोशनी भर थी।

अचानक दरवाजा खुला, एक आहट उसके करीब आई। आँखों की झिरी से विक्रम ने सुप्रिया को अपने करीब आते देखा। वह उसके चेहरे पर झुकी उसे देख रही थी। उसकी आँखें भरी थीं। जैसे नींद में ही विक्रम ने हाथ बढ़ाया और उसे अपने पास खींच लिया।

क्या समझती थीं आप मैं रोज ऐसे ही सोता रहता हूँ? वह होंठ टेढ़े कर हँस दिया। सुप्रिया पसीने-पसीने हो रही थी। वह कभी भी इस नजर का सामना नहीं कर पाई थी आज भी नहीं कर पाई। विक्रम ने हौले से उसकी धानी चूड़ियाँ तिड़ककर पिघल जाएँगी। वह मंत्रमुग्ध-सा उसे देखे जा रहा था। धानी साड़ी में वह कितनी सुंदर लग रही थी। अचानक विक्रम के होंठों से गहरी साँस निकल गई।
पता है मुझे, वह दृढ़ स्वर में बोली। उसकी उदास मुस्कुराहट ने विक्रम को गहरे तक छू लिया। उस लड़की के जाने कितने रूप एकबारगी उसकी आँखों के सामने से गुजर गए। उसने और कुछ न कह उसे अपनी बाँहों में समेट लिया। सुप्रिया के चारों ओर आनंद की बाँहों को घेरा और पारिजात पुष्प की सुगंध-सी पुरुष देह परिमल...।

विक्रम की छुट्‍टियाँ खत्म हुईं और वह चला गया। सुप्रिया रोना चाहती थी, पर रोई नहीं। उसकी आँखें आँसुओं से खाली थीं। जो गलती जानकर की, उसके लिए रोना क्यों? विक्रम इस बात पर परेशान था कि सुप्रिया ने आगे से उससे कोई संपर्क न रखने की सौगंध ले ली थी। एक-एक कर पंद्रह साल गुजर गए।

सुप्रिया की सौगंध से बँधा विक्रम उधर नहीं गया, पर इस बार इधर आना हुआ तो वह अपने को रोक नहीं सका। उसे जरा भी उम्मीद नहीं थी कि सुप्रिया वहाँ होगी। उस ऐकांतिक प्यार की समृति जैसे उसे विवश किए जा रही थी। सामान रेस्ट हाउस में रखकर वह बाहर निकल आया। कुछ भी नहीं बदला था।
वैसी ही डूबती शाम थी, वैसी ही नदी की लहरें। अचानक वह ठिठक गया। वहीं चट्‍टान पर बैठी सुप्रिया स्थिर दृष्टि से दूर जाती नावों को देख रही थी। सफेद साड़ी में उसका चेहरा और भी सौम्य लगता था।
विक्रम का दिल भर आया। अचानक वह मुड़ी-कैसे हो आनंद? उसके होंठों पर मीठी हँसी थी।
तुमने कैसे जाना कि मैं हूँ?

भूल गए हो तुम, कि यह आहट में पहचानती हूँ। कितने सालों से ऐसे ही सुनती आ रही हूँ। वह हँसी - वैसे स्टील ग्रे बालों में तुम और भी खूबसूरत लगने लगे हो।
अपने बेटे से मिलोगे आनंद? वह मु्स्कुराई। तब तक वह करीब आ चुका था। हल्के बादामी रंग की चैक शर्ट में वह इतना आकर्षक लग रहा था कि विक्रम को अपने किशोर दिनों की याद आ गई।
विकी, इनसे मिलो - मेजर विक्रम आनंद।
गुड इवनिंग सर!
वह हौले से मुस्कुराकर रह गया।
ममा, मैं चलूँगा.. मेरा चार्ली भूखा है। कहकर उसने घोड़े को एड़ लगाई और आगे बढ़ गया। विक्रम स्तब्ध था। कुछ देर तो उसे अपने को सँभालने में लगे। उसने धीमे से सुप्रिया को अपने पास खींच लिया।



तीसरे दिन विक्रम को वापस जाना था। बस स्टैंड तक वे दोनों उसे छोड़ने आए थे। बस चली तो वह देर तक प्रिया और विकी को देखता रहा। आगे आकर उसने आँखें पोंछ ली।



प्रिया, तुमने मुझे कुछ भी नहीं बताया यह सब कुछ कैसे, अकेले ही।
मैं सोचती थी, तुम्हें पता चलेगा तो तुम अपने आप को अपराधी महसूस करोगे, इसलिए। तुम्हारे जाने के बाद मैंने मर जाना चाहा पर तभी मुझे विकी के आने का पता चला और मैंने जीने का निश्चय कर लिया।
अविनाश? वह सिहर गया।
जानते हैं। उन्होंने ‍ही विक्रम आनंद के बेटे का नाम विकास आनंद रखा है। मेरी एक दोस्त डॉक्टर थी। मैं उसके यहाँ चली गई थी। विकी को वहीं छोड़कर आई थी। एक महीने बाद वह यहाँ इसे लेकर आई और मैंने इसे कानूनन गोद ले लिया।
विकी को पता है?
नहीं, मुझे डर लगता है। वह न जाने क्या सोचेगा।
पर उसे पता होना चाहिए...। वह अनाथ नहीं है प्रिया हमारी संतान है, हम दोनों की।
उस रात विक्रम ने विकी को खाने पर बुलाया और सारी बात धीरे-धीरे बता दी।
विकी के चेहरे के बदलते भावों से लग रहा था कि उसे गहरा आघात लगा है। सब कुछ सुन लेने के बाद उसने सिर उठाया। मुझे आप दोनों से कोई शिकायत नहीं...

पर दुख जरूर है कि ममा और आपके होते हुए भी मेरा बचपन अनाथों की तरह गुजर गया।
सॉरी बेटे! प्रिया की मजबूरी तुम समझ सकते हो और मुझे तुम्हारे बारे में कुछ पता ही नहीं था। विक्रम के स्वर में उदासी थी। अविनाश एक हफ्ते से बाहर गया हुआ था। सुप्रिया को पहली बार अविनाश की कमी का गहरा अहसास हुआ। वह बरामदे में कुर्सी पर अँधेरे में बैठी रही। उसने रोशनी तक नहीं जलाई थी। पहली बार वह अपने ही बेटे से डर गई थी।

करीब ग्यारह बजे होंगे जब विकी वापस आया और धीमे कदमों से बरामदे की सीढ़ियाँ चढ़कर उसके पास आ गया - आप जानती हैं ममा! बहुत बार आपको देखकर मैंने यही सोचा था कि काश! आप मेरी सगी माँ होतीं। पर मुझे नहीं पता था कि कभी-कभी ऊपर वाला सचमुच हमारी बात सुन लेता है। आयम प्राउड ऑफ यू ममा! उसने दोनों बाँहें प्रिया के गिर्द डाल दीं। पहली बार प्रिया अपने बेटे के कंधे पर सिर रख फूट-फूटकर रो उठीं। बरसों से जिस बेटे को वह अपना न कह पाई थी, आज उस बेटे ने इस तरह उसे स्वीकार कर उसकी म‍ुश्किल आसान कर दी थी।

तीसरे दिन विक्रम को वापस जाना था। बस स्टैंड तक वे दोनों उसे छोड़ने आए थे। बस चली तो वह देर तक प्रिया और विकी को देखता रहा। आगे आकर उसने आँखें पोंछ ली। यह कैसी जिंदगी थी, निधि और बच्चों को वह छोड़ नहीं सकता था और प्रिया और विकी उसकी जान थे। उसने धीमे से अपना माथा थाम आँखें बंद कर लीं।

साभार : समकालीन साहित्य समाचार

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